ओशो आचार्य रजनीश


ओशो: आचार्य रजनीश का साम्राज्य बनने और बिखरने की कहानी।

ओशो रजनीश, जिन्हें "भगवान श्री रजनीश" और बाद में "ओशो" के नाम से जाना गया, एक प्रसिद्ध भारतीय आध्यात्मिक गुरु, विचारक और लेखक थे। उनका जन्म 11 दिसंबर 1931 को मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के कुचवाड़ा गांव में हुआ था। उनका असली नाम "चंद्र मोहन जैन" था। बचपन से ही वे गहरे चिंतनशील और स्वतंत्र विचारों के व्यक्ति थे, और उन्होंने अपने जीवन में विभिन्न धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक परंपराओं पर गहरा प्रभाव डाला।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा:

ओशो’ का अर्थ है वो शख़्स जिसने अपने आपको सागर में विलीन कर लिया हो. उन्हें दुनिया से गए लगभग 33 वर्ष हो चुके हैं लेकिन आज भी उनकी लिखी किताबें बिक रही हैं, उनके वीडियो और ऑडियो सोशल मीडिया पर आज भी ख़ूब देखे-सुने जाते हैं।

ओशो में लोगों की दिलचस्पी इसलिए भी जगी क्योंकि वो किसी परंपरा, दार्शनिक विचारधारा या धर्म का हिस्सा कभी नहीं रहे. 11 दिसंबर, 1931 को मध्य प्रदेश में जन्मे ओशो का असली नाम चंद्रमोहन जैन था।

वसंत जोशी__ ओशो की जीवनी ‘द ल्यूमनस रेबेल लाइफ़ स्टोरी ऑफ़ अ मैवरिक मिस्टिक’ में लिखते हैं, "ओशो एक सामान्य बच्चे की तरह बड़े हुए लेकिन तब भी उनमें कुछ ऐसा अलग था जो उन्हें सामान्य बच्चों से अलग करता था. बचपन से ही उनमें एक गुण था सवाल पूछना और प्रयोग करना. शुरू से ही लोगों में उनकी दिलचस्पी थी. मानव प्रवृत्ति पर पैनी नज़र रखना उनका मुख्य शुगल हुआ करता था. नतीजा ये हुआ कि अपने से बाहर की दुनिया और मानव मस्तिष्क पर उनकी बारीक नज़र हुआ करती थी।

ओशो ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा जबलपुर में पूरी की। कॉलेज के दौरान उनका झुकाव ध्यान और दर्शन की ओर बढ़ने लगा। वे अक्सर धर्म, ध्यान और समाज से जुड़े मुद्दों पर व्याख्यान दिया करते थे। उन्होंने 1950 के दशक में जबलपुर विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में स्नातक और स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की और बाद में उसी विश्वविद्यालय में अध्यापन का कार्य भी किया।

जब 1951 में बीए पास करने के बाद ओशो ने जबलपुर के हितकारिणी कॉलेज में दाखिला लिया तो दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर से उनकी ठन गई. वो लेक्चर के दौरान उनसे सवाल पूछते थे  प्रोफ़ेसर जवाब देते-देते तंग आ जाते थे और समय पर अपना कोर्स पूरा नहीं कर पाते थे।

वसंत जोशी__ लिखते हैं, "आख़िरकार जब प्रोफ़ेसर से बर्दाश्त नहीं हुआ तो उन्होंने प्रधानाचार्य को अल्टीमेटम दे दिया कि उस कॉलेज में या तो वो रहेंगे या चंद्रमोहन जैन. प्रधानाचार्य ने चंद्रमोहन को अपने दफ़्तर में बुलाकर कॉलेज छोड़ देने के लिए कहा. हालांकि उन्होंने माना कि इस प्रकरण में उनकी कोई गलती नहीं है लेकिन वो नहीं चाहते कि इस मुद्दे पर उनके कॉलेज के वरिष्ठ प्रोफ़ेसर अपने पद से इस्तीफ़े  दें चंद्रमोहन ने इस शर्त पर कॉलेज छोड़ने का फ़ैसला किया कि प्रिंसिपल उनका दाख़िला किसी और कॉलेज में करा देंगे।

रजनीश इतने कुख्यात हो चुके थे कि शुरू में हर कॉलेज ने उन्हें अपने यहाँ रखने से इनकार कर दिया. बाद में बड़ी मुश्किल से डीएन जैन कॉलेज में उनका दाख़िला हो पाया।

प्रोफेशर की नौकरी छोड़ बने धार्मिक गुरू :

इसी दौरान एक आध्यात्मिक गुरू के रूप में उन्होंने अपना करियर शुरू किया और पूरे भारत का दौरा करने लगे और राजनीति, धर्म और सेक्स पर विवादास्पद व्याखयान देने लगे।

कुछ दिनों बाद उन्होंने प्रोफ़ेसर के पद से त्यागपत्र दे दिया और पूरी तरह से गुरू बन गए. सन 1969 में उन्होंने मुंबई में अपना मुख्यालय स्थापित किया. एक साल पहले उनसे मिली माँ योग लक्ष्मी उनकी प्रमुख सहायक बन गईं और वर्ष 1981 तक इस पद पर रहीं।

इसी दौरान उनकी मुलाकात एक अंग्रेज़ महिला क्रिस्टीना वुल्फ़ से हुई. उनको रजनीश ने संन्यासी नाम 'मा योगा विवेक' दिया. वो उन्हें अपने पिछले जन्म की दोस्त मानते थे. वो उनकी निजी सहयोगी बन गईं।

सार्वजनिक जीवन की शुरुआत और भारत में आश्रम की स्थापना:

1960 के दशक के दौरान, ओशो ने भारत में सार्वजनिक रूप से प्रवचन देने शुरू किए। उनका संदेश पारंपरिक धर्मों के अनुयायियों के लिए चुनौतीपूर्ण था क्योंकि उन्होंने पारंपरिक मान्यताओं और रूढ़िवादिता की आलोचना की। उनकी शिक्षाएं स्वतंत्रता, प्रेम, ध्यान और आत्म-ज्ञान पर आधारित थीं। उनके विचारों ने विशेष रूप से युवाओं को आकर्षित किया। 1974 में, उन्होंने पुणे में "ओशो आश्रम" (ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिज़ॉर्ट) की स्थापना की, जहाँ दुनिया भर से लोग ध्यान, साधना और उनके विचारों को समझने के लिए आते थे।

रजनीश ने अपने करियर की शुरुआत 1957 मे रायपुर के संस्कृत विश्वविद्यालय में प्रवक्ता बन कर की. सन 1960 में वो जबलपुर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफ़ेसर बन गए उनको उस ज़माने में एक तेज़-तर्रार अध्यापक माना जाता था।

पुणे में बनाया गया रजनीश का आश्रम:

कुछ दिनों बाद ओशो को मुंबई का जीवन कठिन लगने लगा. मुंबई की तेज़ बारिश के कारण उनकी एलर्जी और दमा दिनोंदिन बढ़ने लगा. उनके विदेशी अनुयायी भी मुंबई की मानसून बारिश के आदी नहीं थे. उन्हें तरह-तरह की बीमारियों ने घेरना शुरू कर दिया. उन्होंने अपनी सचिव से मुंबई के आसपास कोई जगह ढूँढने के लिए कहा।

काफ़ी सोच-विचार के बाद तय किया गया कि वो पुणे में अपना आश्रम बनाएंगे. पुणे का मौसम और आबोहवा मुंबई से बेहतर थे. उन्होंने आश्रम के लिए कोरेगाँव को चुना।

आनंद शीला लिखती हैं, "पुणे पहुँचने के बाद ओशो ने अपने-आप को लोगों से अलग-थलग करना शुरू कर दिया. शुरू में वो आश्रम के गार्डेन में लोगों से मिला करते थे. बाद में लोगों के लिए उनसे मिलना बहुत मुश्किल हो गया. वो अपने इर्द-गिर्द सिर्फ़ मज़बूत और भरोसेमंद लोगों को रखना चाहते थे। दरअसल, उन्हें अनुयायियों नहीं मज़दूरों की तलाश थी. उन्होंने अधिकतर भारतीयों को नज़रअंदाज़ करना शुरू कर दिया. जब उन्हें लगने लगा कि कई लोग सिर्फ़ जिज्ञासा के कारण उनके आश्रम आ रहे हैं तो उन्होंने आश्रम में प्रवेश की फ़ीस बढ़ा दी. यही नहीं अपने भारतीय अनुयायियों को हतोत्साहित करने के उद्देश्य से उन्होंने अंग्रेज़ी में भाषण देना शुरू कर दिया।

विवादास्पद विषयों पर भाषण:

विन मैकॉरमक अपनी किताब ‘द रजनीश क्रोनिकल’ में लिखते हैं, "उनके विचार इतने विवादास्पद होते थे कि कई बार भारतीय संसद में उन पर प्रतिबंध लगाने के बारे में चर्चा हुई. अलग-अलग लोगों को आकृष्ट करने के लिए ओशो कई अलग-अलग विषय चुनते थे. उनके श्रोता मिलीजुली पृष्ठभूमि से आते थे. हर आयु, धर्म और नस्ल के लोग उनका भाषण सुनने के लिए जमा होते थे. जो भी उनके संपर्क में आता था या तो उनका शिष्य बन जाता था या उनका विरोधी. कोई उनके प्रति उदासीन नहीं रह सकता था।

1972 के दौरान भारत आने वाले विदेशी पर्यटक उनकी तरफ़ आकृष्ट होना शुरू हो गए थे. उनकी सचिव लक्ष्मी बहुत सावधानी से उनसे मिलने वालों को चुना करती थीं. उन सबसे पहले एक ‘डायनेमिक मेडिटेशन’ में शामिल होने के लिए कहा जाता था और फिर ओशो से उनकी मुलाकात कराई जाती थी. शुरू में वो रोज़ सुबह 6 बजे चौपाटी के समुद्र तट पर अपना भाषण दिया करते थे।

रात में वो किसी हॉल या अपने घर पर ही लोगों को संबोधित करते थे. कभी कभी उनके सुनने वालों की संख्या 100 से 120 के बीच रहा करती थी और कभी कभी वो बढ़कर 5000 से 8000 के बीच हो जाया करती थी।

मौलिक विचारों के कारण प्रसिद्धि:

रजनीश ने शुरू से ही सदियों से चली आ रही धार्मिक धारणाओं और कर्मकांडों के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठाई. एक आध्यात्मिक गुरु के तौर पर ओशो का मानना था कि संगठित धर्म लोगों का आध्यात्मिक ज्ञानोदय के बजाए लोगों में विभाजन का ज़रिया बना है।

उनकी नज़र में धर्म कुरीतियों का शिकार होकर अपनी जीवन शक्ति खो चुका है. ओशो ने धर्म और राजनीति को एक ही सिक्के के दो पहलू माना जिसका एकमात्र उद्देश्य लोगों पर नियंत्रण करना है. उन्होंने पूर्वी दर्शन और फ़्रॉयड के मनोविश्लेषण का अद्भुत समन्वय लोगों के सामने पेश किया और खुले शब्दों में ‘सेक्सुअल लिबरेशन’ की वकालत की।

जटिल अवधारणाओं को सामान्य भाषा में पेश करने की उनकी क्षमता ने अलग-अलग पेशे के कई लोगों को उनकी तरफ़ खींचा. जाने-माने लेखक खुशवंत सिंह ने उनकी तारीफ़ करते हुए लिखा था, "ओशो भारत में पैदा हुए सबसे मौलिक विचारकों में से एक थे. इसके अलावा वो सबसे अधिक विचारशील, वैज्ञानिक और नए विचारों वाले शख़्स थे।

यौनिकता से जुड़े नैतिक मुद्दे:

अमेरिकी लेखक टॉम रॉबिंस का मानना था कि ‘ओशो की किताबें पढ़कर लगता है कि 20वीं सदी के सबसे महान आध्यात्मिक गुरु थे।
ओशो के आश्रम में तरह-तरह की थेरेपीज़ दी जाने लगीं और पानी की तरह पैसा आने लगा. इन थेरेपीज़ में सेक्स थेरेपीज़ को सबसे अधिक महत्व मिलने लगा. इनमें यौनिकता को बिना किसी पूर्वागृह के स्वीकार किया जाने लगा. यौनिकता के साथ जुड़े नैतिक मुद्दों और रोक-टोक को ताक पर रख दिया गया।

आनंद शीला लिखती हैं, "भगवान चाहते थे कि हम बिना किसी ईर्ष्या और अधिकार की भावना के काम करें. भारतीय लोगों को इन थेरेपीज़ में भाग नहीं लेने दिया जाता था. हर कोई ये नहीं समझ पाया कि ओशो ने इन थेरेपीज़ में भारतीय लोगों के भाग लेने पर क्यों रोक लगा दी? उनसे इस बारे में कई सवाल पूछे गए. उनका तर्क था कि पश्चिम के लोग एक उत्पीड़क दुनिया से आते हैं. उनका रहन-सहन और मानसिकता भारतीय लोगों से बिल्कुल जुदा है. उनको एक सक्रिय थेरेपी की ज़रूरत है जबकि भारतीय लोगों के लिए निष्क्रिय और शांत ध्यान पर्याप्त है।
ओशो के आश्रम में तरह-तरह की थेरेपीज़ दी जाने लगीं और 
ओशो के एक शिष्य रहे टिम गेस्ट अपनी किताब ‘माई लाइफ़ इन ऑरेंज, ग्रोइंग अप विद द गुरु’ में लिखते हैं, "कई भारतीय उनकी किताब ‘संभोग से समाधि’ को पोर्नोग्राफ़िक किताब मानते हैं. इससे उनकी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचती है क्योंकि इसमें खुलेआम सेक्स के बारे मे बात की गई है. ये किताब लिखकर वो सेक्स को दबाने की सोच रखने वाले साधु-संतों के दुश्मन बन गए. अपने विचारों को खुलेआम अभिव्यक्त करने की उनकी वकालत को सेक्सुअल पार्टनर्स बदलने के प्रोत्साहन के रूप में देखा गया. उन पर आश्रम की महिलाओं में यौन उन्मुक्तता को बढ़ावा देने के आरोप भी लगे।

थोड़े समय में पुणे के रजनीश आश्रम का कुल क्षेत्र 25 हज़ार वर्ग मीटर हो गया. वहाँ पर एक मेडिकल सेंटर बनाया गया जहाँ दुनिया भर से लाए गए डॉक्टरों और नर्सों को रखा गया. आश्रम में रहने वाले लोगों और पूर्णकालिक मज़दूरों के लिए मेडिकल सेवा मुफ़्त रखी गई।

आनंद शीला लिखती हैं, "ओशो नहीं चाहते थे कि उस संकुचित जगह पर नवजात बच्चों को रखा जाए इसलिए संन्यासिनों को गर्भवती होने को लिए हतोत्साहित किया जाता था. ओशो ने आश्रम के कई पदाधिकारियों से गर्भ निरोधक ऑपरेशन कराने के लिए कहा था क्योंकि गर्भवती महिलाएँ और पैदा हुए बच्चे आश्रम के लिए समस्या बन सकते थे. आश्रम के अंदर बच्चे पैदा करने पर मनाही थी और न ही गर्भवती महिलाएँ आश्रम के अंदर रह सकती थीं।

ओशो अक्सर ‘यौन रिपरेशन’ की बात करते थे इसलिए संन्यासी खुला सेक्स जीवन जीते थे जिसकी वजह से आश्रम में संक्रामक यौन रोग बढ़ने लगे. कुछ संन्यासियों के तो एक महीने में 90 के करीब यौन संपर्क देखे गए।

आनंद शीला लिखती हैं, "मुझे आश्चर्य होता था कि इतने व्यस्त दिन के बाद भी संन्यासियों को सेक्स के लिए समय किस तरह मिल जाता था।

लकड़ी की माला और लॉकेट में ओशो का चित्र:

शीला अपनी आत्मकथा ‘डोंट किल हिम, द स्टोरी ऑफ़ माई लाइफ़ विद भगवान रजनीश’ में लिखती हैं, "जब मैं उनके कमरे में दाख़िल हुई तो भगवान मेरी तरफ़ देख कर मुस्कराए और अपनी बाहें फैला दी. उन्होंने मुझे अपने सीने से लगाया और बहुत धीरे से मेरा हाथ पकड़ लिया. मैंने उनकी गोद में अपना सिर रख दिया. थोड़ी देर बाद जब मैं चुपके से उठकर जाने लगीं तो उन्होंने मुझे फिर बुला लिया. उन्होंने कहा शीला कल तुम मुझसे ढाई बजे मिलने आओगी. ये कहकर उन्होंने मेरे सिर पर अपना हाथ रख दिया।

ओशो अपने हर शिष्य को लकड़ी की बनी एक माला देते थे जिसमें एक लॉकेट होता था और उसके दोनों तरफ़ ओशो का चित्र लगा होता था. हर संन्यासी से ये अपेक्षा की जाती थी कि वो हर समय उस लॉकेट को पहने. वो हर संन्यासी को एक नया नाम भी देते थे ताकि वो भूतकाल से अपने आप को अलग कर सके. वो चाहते थे कि उनके शिष्य नारंगी या लाल कपड़े पहने. ये ज़रूरी होता था कि वो कपड़े ढीले हों ताकि 'आसानी से शरीर में ऊर्जा का संचार हो सके।

परफ़्यूम और इत्र से एलर्जी:

जब उनका मधुमेह बढ़ा तो उन्होंने अपने निवास से निकलना और भाषण देना बंद कर दिया. उनकी आँखें कमज़ोर होती चली गईं और किताब पढ़ने के बाद उनके सिर में एक बार फिर दर्द रहने लगा.

आनंद शीला लिखती हैं, "उनको परफ़्यूम से बहुत एलर्जी थी. हमें उन लोगों को उनके पास आने से रोकने में बहुत मशक्कत करनी पड़ती थी जिन्होंने सेंट लगाया होता था. सुबह और शाम के भाषणों से पहले हर श्रोता के शरीर को सूँघा जाता था कि कहीं उसने कोई परफ़्यूम तो नहीं लगा रखा है. ये एक अजीब तरह की प्रक्रिया थी लेकिन ओशो को एलर्जी से बचाने के लिए ये ज़रूरी था।

अमेरिका का सफर और विवाद:

1981 में, ओशो ने अमेरिका का रुख किया। वहाँ उन्होंने ओरेगॉन में "रजनीशपुरम" नामक एक आश्रम की स्थापना की। इस आश्रम ने बहुत जल्दी विस्तार किया और हजारों अनुयायी यहाँ आकर बस गए। हालाँकि, कुछ समय बाद स्थानीय सरकार और रजनीशपुरम के बीच विवाद बढ़ने लगे। इन विवादों में कानूनी मुद्दों से लेकर स्वास्थ्य और आपराधिक आरोप भी शामिल थे। इसके चलते 1985 में ओशो को अमेरिका से निर्वासित कर दिया गया।

अमेरिकी जेल में 17 दिन:

पुणे से भी ओशो का दिल भर गया. उन्होंने अमेरिका में ओरेगन में एक आश्रम बनाने की योजना बनाई जिसमें हज़ारों लोग एक साथ रह सकें. 31 मई, 1981 को वो मुंबई से अपने नए आश्रम के लिए रवाना हुए।

जहाज़ की सभी फ़र्स्ट क्लास की सीटें उनके और उनके निकट सहयोगियों के लिए बुक थीं. उनके साथ उनके ढाई हज़ार आश्रमवासियों ने भी अमेरिका का रुख़ किया. इनमें मशहूर फ़िल्म अभिनेता विनोद खन्ना भी थे. इस बीच ओशो ने 93 रोल्स रॉइस कारें खरीदीं लेकिन यहीं से उनके बुरे दिन शुरू हो गए और उनका अमेरिकी सपना ताश के पत्तों की तरह ढहना शुरू हो गया।

उन पर प्रवासी नियमों का उल्लंघन करने के लिए मुकदमा चलाया गया. उन्हें 17 दिन अमेरिकी जेल में रहना पड़ा, जेल से निजात मिलने पर वो अमेरिका छोड़ने के लिए राज़ी हो गए. इसके बाद उन्होंने कई देशों में शरण लेने की कोशिश की लेकिन एक के बाद एक कई देशों ने उन्हें अपने यहाँ लेने से इनकार कर दिया।

आखिरकार वो अपने देश भारत वापस आने के लिए मजबूर हुए।

19 जनवरी, 1990 को उन्होंने मात्र 58 साल की उम्र में इस दुनिया से अलविदा कहा. पुणे के उनके निवास ‘लाओ ज़ू हाउज़’ में उनकी समाधि बनाई गई जिसके टॉम्ब स्टोन पर लिखा गया, "ओशो, जो न कभी पैदा हुए, न कभी मरे. उन्होंने 11 दिसंबर, 1931 और 19 जनवरी, 1990 के बीच इस धरती की यात्रा की।

वापस भारत में:

अमेरिका से निर्वासित होने के बाद, ओशो ने कई देशों का दौरा किया, लेकिन उन्हें अधिकतर देशों में प्रवेश नहीं दिया गया। इसके बाद, वे 1986 में भारत लौटे और पुणे के आश्रम में अपना प्रवचन जारी रखा। उन्होंने "ओशो" नाम को अपनाया, जो जापानी भाषा का एक शब्द है और जिसका अर्थ है "समुद्र की तरह।" भारत लौटने के बाद उन्होंने अधिकतर समय अपने आश्रम में ध्यान और प्रवचनों में व्यतीत किया।

ओशो का दूसरा जन्म के बारे में:

खुद शिष्यों से कहा था, यह दूसरा जन्म है
बात 1970 की है. भगवान श्री रजनीश मुंबई गए थे, जहां उन्होंने शिष्यों को ‘नव संन्यास’ की शिक्षा दी थी. यहीं से उन्होंने आध्यात्मिक मार्गदर्शक के रूप में काम करना शुरू कर दिया. पुणे में उन्होंने 1974 में इंटरनेशनल मेडिटेशन रिसॉर्ट को स्थापित किया, जहां बड़ी संख्या में विदेशी भी आने लगे थे. इसको देखते हुए वह 1980 में अमेरिका गए, जहां शिष्यों के साथ मिलकर पूरा रजनीशपुरम ही बसा दिया. इसी बीच, उन्होंने अपने शिष्यों को बताया था कि यह उनका पुनर्जन्म है. 750 साल पहले भी वह पैदा हुए थे. तब उनका जन्म तिब्बत में हुआ था, जहां खास साधना करते-करते उनकी मौत हो गई थी, जबकि तीन दिन और मिलते तो उनकी साधना पूरी हो जाती. साधना पूरी नहीं होने के कारण ही उन्हें दोबारा जन्म लेना पड़ा. जीवन की अंतिम घड़ियां ओशो ने पुणे के कोरेगांव पार्क स्थित अपने मेडिटेशन रिसॉर्ट में बिताई थी।

मृत्यु:

ओशो का स्वास्थ्य धीरे-धीरे गिरने लगा, और 19 जनवरी 1990 को उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी शिक्षाएं और विचार लाखों अनुयायियों द्वारा अनुसरण किए जाते हैं, और उनका पुणे आश्रम आज भी एक प्रमुख ध्यान केंद्र है। ओशो की पुस्तकों, प्रवचनों और विचारों का अनुवाद कई भाषाओं में किया गया है, और वे वर्तमान समय में भी लोगों के मनोवैज्ञानिक, आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन में गहरा प्रभाव डालते हैं।

ओशो, जिनका असली नाम रजनीश चंद्र मोहन जैन था, की मृत्यु 19 जनवरी 1990 को हुई। उनकी मृत्यु का कारण हृदय संबंधी समस्याएँ बताई गईं, और उन्हें कई सालों से स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। ओशो ने अपनी अंतिम वर्ष अमेरिका के ओरेगन राज्य के रजनीशपुरम में बिताए, जहाँ उन्होंने ध्यान, ध्यान और जीवन के विभिन्न पहलुओं पर विचार साझा किए। उनकी मृत्यु के समय वे 58 वर्ष के थे।

विचारधारा और प्रभाव:

ओशो की विचारधारा मुख्य रूप से ध्यान, प्रेम, स्वतंत्रता और जीवन के प्रति सहज दृष्टिकोण पर आधारित थी। उन्होंने सेक्स, धर्म, राजनीति, और समाज से जुड़े कई परंपरागत विषयों पर बेबाकी से अपने विचार रखे, जिससे उनकी विचारधारा विवादास्पद भी मानी गई। ओशो का मानना था कि व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता के साथ जीवन जीना चाहिए और जीवन के हर पल का आनंद लेना चाहिए। उनके विचार ने समाज के पारंपरिक ढांचे को चुनौती दी और कई लोगों को आत्म-ज्ञान और ध्यान के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया।

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